800 सैन्य ठिकाने और डॉलर की दादागीरी: क्या यही है अमेरिका के टैरिफ लगाने की असली वजह? #17 *GQ* (1)
सारांश:
अमेरिका की 750 से अधिक विदेशी सैन्य छावनियां, 1944 के ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत डॉलर का वैश्विक वर्चस्व और उसकी भौगोलिक स्थिति ही उसे किसी भी देश पर मनमाने प्रतिबंध लगाने की ताकत देती है। ईरान पर लगे कठोर प्रतिबंधों और 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद लगाए गए आर्थिक घावों से लेकर, भारत-रूस तेल व्यापार पर हालिया टैरिफ की धमकी इसी ताकत का नतीजा है। भारत इस दबाव को कृषि, ISRO और मानव संसाधन जैसे क्षेत्रों में अपनी ताकत बढ़ाकर दूर कर सकता है।
आख़िर क्यों है अमेरिका की आर्थिक और रणनीतिक दादागीरी?
यह सवाल अक्सर उठता है कि आखिर अमेरिका को यह ताकत कहां से मिलती है कि वह अपनी मर्जी से किसी भी देश पर टैरिफ और आर्थिक प्रतिबंध लगा दे। चाहे वह रूस हो, ईरान हो या फिर भारत जैसा रणनीतिक साझेदार। जब दुनिया का कोई दूसरा देश ऐसा करने की हिम्मत नहीं करता, तो अमेरिका क्यों कर पाता है? इसका जवाब किसी एक कारण में नहीं, बल्कि कई कारकों के एक जटिल और शक्तिशाली तंत्र में छिपा है। ये कारक मिलकर अमेरिका की दादागीरी का एक ऐसा मजबूत आधार तैयार करते हैं, जिसे चुनौती देना आसान नहीं। इस रिपोर्ट में हम अमेरिका की ताकत के इन चार प्रमुख स्तंभों को समझेंगे और फिर यह जानेंगे कि भारत अपनी स्थिति को कैसे मजबूत कर सकता है।
1. दुनिया भर में फैले 800 से अधिक अमेरिकी सैन्य ठिकाने: ताकत का पहला खंभा
अमेरिका की ताकत का सबसे स्पष्ट प्रमाण दुनिया भर में फैली उसकी सैन्य उपस्थिति है। यह सिर्फ एक सेना नहीं, बल्कि एक 'साम्राज्य' है। अमेरिकी विशेषज्ञ इस बुनियादी ढांचे को एक ऐसे "एम्पायर ऑफ बेसिस" (ठिकानों का साम्राज्य) के रूप में वर्णित करते हैं जो पारंपरिक साम्राज्य से अलग है क्योंकि यह क्षेत्रीय विजय के बजाय सहयोगी या आश्रित देशों में स्थापित सैन्य सुविधाओं के एक विशाल नेटवर्क पर निर्भर करता है ।
अनुमानित 750 से 877 अमेरिकी सैन्य ठिकाने और साइट्स दुनिया के 80 से अधिक देशों में फैले हुए हैं । यह दुनिया के कुल विदेशी सैन्य ठिकानों का लगभग 75-85% है। तुलनात्मक रूप से, चीन के पास तिब्बत के अलावा केवल 10 ऐसे ठिकाने हैं, जबकि यूके, फ्रांस और रूस जैसे अन्य प्रमुख देशों के पास कुल मिलाकर 100 से 200 के बीच विदेशी ठिकाने हैं । पेंटागन (अमेरिकी रक्षा विभाग) द्वारा बताए गए 702 ठिकानों के आंकड़े में इराक, सीरिया और सऊदी अरब जैसे देशों में मौजूद गुप्त ठिकाने शामिल नहीं हैं ।
इनमें से सबसे अधिक ठिकाने जर्मनी (122), जापान (98), दक्षिण कोरिया (80) और इटली (47) जैसे देशों में हैं, जो अमेरिका की रणनीतिक उपस्थिति को उजागर करता है । इस विशाल नेटवर्क का उद्देश्य "पावर प्रोजेक्शन" या शक्ति प्रक्षेपण है, जो किसी भी देश की अपनी सीमा से बाहर सेना को तैनात करने और बनाए रखने की क्षमता को दर्शाता है । यह नेटवर्क अमेरिका को दुनिया के किसी भी क्षेत्र में तुरंत सैन्य बल का उपयोग करने, अभियानों को बनाए रखने और यहां तक कि दूर-दराज के क्षेत्रों में राजनीतिक परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता देता है ।
यह वैश्विक सैन्य बुनियादी ढांचा अमेरिकी हितों को आगे बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण साधन है। यह सहयोगियों को सुरक्षा का ठोस आश्वासन देता है, जैसा कि दक्षिण कोरिया, जर्मनी या पोलैंड जैसे देशों के लिए अमेरिकी सेना की स्थायी उपस्थिति से होता है । साथ ही, यह विरोधियों को अमेरिका की "बाध्यकारी क्षमता" (coercive capacity) का स्पष्ट संकेत देता है । हालांकि, यह एक विरोधाभास भी पैदा करता है: जहां इन ठिकानों का उद्देश्य शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना है, वहीं उनकी omnipresence अक्सर असुरक्षा, निर्भरता और रणनीतिक प्रतिक्रिया (strategic backlash) पैदा करती है । अफगानिस्तान और इराक में युद्ध इसका प्रमुख उदाहरण हैं, जहां भारी सैन्य ताकत के बावजूद अमेरिका निर्णायक राजनीतिक परिणाम हासिल करने में विफल रहा । यह सैन्य नेटवर्क सीधे तौर पर अमेरिका की आर्थिक दादागीरी का समर्थन करता है क्योंकि यह वैश्विक व्यापार मार्गों की सुरक्षा करता है और डॉलर पर आधारित वैश्विक व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करता है ।
इस अंतर को समझने के लिए, निम्नलिखित तालिका दुनिया के कुछ प्रमुख देशों के विदेशी सैन्य ठिकानों की संख्या की तुलना प्रस्तुत करती है:
देश | ठिकानों की संख्या | देशों की संख्या जहाँ वे मौजूद हैं |
---|---|---|
अमेरिका | 877 | 95 |
यूके | 117 | 38 |
रूस | 29 | 10 |
तुर्किए | 133 | 9 |
भारत | 20 | 12 |
चीन | 6 | 6 |
संयुक्त अरब अमीरात | 12 | 5 |
2. डॉलर की ‘असाधारण सुविधा’ और आर्थिक दबदबा
अमेरिका की ताकत का दूसरा सबसे बड़ा खंभा उसका आर्थिक दबदबा है, जिसकी धुरी अमेरिकी डॉलर है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत, दुनिया की 44 देशों ने अपनी मुद्राओं को अमेरिकी डॉलर से जोड़ा । अमेरिका, जिसके पास उस समय दुनिया के दो-तिहाई सोने पर नियंत्रण था, ने डॉलर को $35 प्रति औंस की दर से सोने से जोड़ा । इस व्यवस्था ने डॉलर को दुनिया की प्राथमिक आरक्षित मुद्रा (reserve currency) बना दिया, जिसका अर्थ है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा हिस्सा डॉलर में रखते हैं ।
फ्रांस के पूर्व वित्त मंत्री वैलेरी गिस्कार्ड डी'एस्चिंग ने इस स्थिति को 'असाधारण सुविधा' (exorbitant privilege) कहा था । इसका मतलब यह है कि दुनिया भर में डॉलर की उच्च मांग अमेरिका को अपने व्यापार घाटे को कम लागत पर वित्तपोषित करने की अनुमति देती है । यह डॉलर को कूटनीति का एक शक्तिशाली उपकरण भी बनाता है, जैसा कि वित्तीय प्रतिबंधों को लागू करने की अमेरिका की क्षमता से स्पष्ट होता है ।
हालांकि, हाल के वर्षों में कई देशों ने डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करने के प्रयास तेज कर दिए हैं, इस प्रक्रिया को 'डी-डॉलराइज़ेशन' कहा जाता है । रूस-यूक्रेन संघर्ष के बाद रूस पर लगे प्रतिबंधों के कारण, कई देशों ने डॉलर को दरकिनार करते हुए वैकल्पिक भुगतान प्रणालियों की तलाश शुरू कर दी है । BRICS जैसे समूह के सदस्य देश अपने व्यापार के लिए डॉलर की जगह स्थानीय मुद्राओं का उपयोग कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, रूस और चीन ने अपने द्विपक्षीय लेनदेन में डॉलर का उपयोग लगभग बंद कर दिया है , और भारत-मलेशिया के बीच व्यापार अब रुपये में हो रहा है ।
इसके बावजूद, डॉलर का वर्चस्व धीमा और छोटा है । इसका कारण यह है कि अमेरिकी वित्तीय बाजार अभी भी सबसे बड़े, सबसे तरल (liquid) और सबसे पारदर्शी हैं । दुनिया में "सुरक्षित संपत्ति" (सरकार द्वारा जारी ऋण) की सबसे बड़ी आपूर्ति अमेरिका ही करता है, जो अन्य देशों को अपने भंडार को बनाए रखने के लिए एक विश्वसनीय विकल्प प्रदान करता है । इसलिए, जब तक कोई वास्तविक और सुरक्षित विकल्प नहीं आता, डॉलर का प्रभुत्व बना रहेगा, भले ही उसकी हिस्सेदारी समय के साथ कम हो ।
3. कॉर्पोरेट वर्चस्व और भू-राजनीतिक लाभ
अमेरिका की ताकत का तीसरा खंभा उसकी दिग्गज बहुराष्ट्रीय कंपनियां (MNCs) हैं। ये कंपनियां न केवल आर्थिक इंजन हैं बल्कि अमेरिका की विदेश नीति में भी एक अनूठी भूमिका निभाती हैं। दुनिया के अधिकांश आयात में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का योगदान होता है । Apple, Coca-Cola, और McDonald's जैसी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया भर में अपनी मजबूत ब्रांड पहचान रखती हैं ।
ये कंपनियां अपने नवाचार (R&D) पर सालाना $70 बिलियन से अधिक खर्च करती हैं, जो अमेरिकी निजी क्षेत्र के कुल R&D का एक तिहाई से अधिक है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये कंपनियां अपनी कुल वैश्विक गतिविधियों (जैसे R&D, पूंजी निवेश, और रोजगार) का बड़ा हिस्सा अमेरिका में ही रखती हैं । यह तथ्य इस बात का खंडन करता है कि इन कंपनियों ने अमेरिका को "छोड़ दिया" है। रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के 69.6% कर्मचारी, 71.6% आउटपुट और 74.3% पूंजी निवेश अमेरिका में ही केंद्रित हैं ।
अमेरिकी कॉर्पोरेट का वैश्विक पहुंच, अमेरिकी सैन्य बल द्वारा सुरक्षित किए गए वैश्विक व्यापार मार्गों और डॉलर पर आधारित एक स्थिर आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर करता है। इसके बदले में, ये MNCs अमेरिका की आर्थिक ताकत और नवाचार को बढ़ावा देती हैं। यह एक सहजीवी (symbiotic) संबंध है। ये कंपनियां सिर्फ व्यापारिक इकाई नहीं हैं। उनका वैश्विक पहुंच अमेरिकी संस्कृति और प्रभाव का भी विस्तार करता है, जिससे अमेरिकी 'सॉफ्ट पावर' का निर्माण होता है । यह एक ऐसी ताकत है जो किसी देश को सैन्य कार्रवाई के बिना भी अमेरिकी मॉडल को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है।
4. भूगोल का अभेद्य कवच: अमेरिका की रणनीतिक स्थिति
अमेरिका की ताकत का एक सबसे महत्वपूर्ण, फिर भी अक्सर अनदेखा किया जाने वाला कारण उसका भूगोल है। अमेरिका को 'इंसुलर पावर' (insular power par excellence) कहा जाता है। इसका मतलब है कि यह एक बड़े भू-भाग पर मौजूद इकलौती महाशक्ति है, जो चारों तरफ से विशाल महासागरों (अटलांटिक और प्रशांत) से घिरी हुई है । यह भौगोलिक स्थिति उसे एक अद्वितीय सुरक्षा प्रदान करती है। विशाल जल निकाय एक बफर जोन का काम करते हैं, जिससे अमेरिका को सीधे हमले का कम डर होता है। यह सुरक्षा अमेरिका को 'घूमने' (roam) और अपनी सीमा से बाहर शक्ति का प्रदर्शन करने की स्वतंत्रता देती है । यह भौगोलिक लाभ ही अमेरिका को अपनी विशाल सैन्य और आर्थिक गतिविधियों को बाहरी खतरों की चिंता किए बिना बनाए रखने की अनुमति देता है । यह अन्य महाद्वीपीय शक्तियों (जैसे रूस और चीन) के विपरीत है, जिन्हें हमेशा अपनी सीमाओं पर सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
अमेरिका के एक 'दूर' की शक्ति होने के कारण, भू-राजनीतिक रूप से भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों (जैसे यूरोप और एशिया) में उसके सहयोगी उसे एक कम धमकी भरे सुरक्षा प्रदाता के रूप में देखते हैं, जो एक स्थानीय प्रतिद्वंद्वी की तुलना में अधिक स्वीकार्य है । यह अमेरिकी गठबंधन प्रणाली की स्थिरता को भी समझाता है, क्योंकि सहयोगी राष्ट्र अपने रक्षा बोझ को कम करने के लिए अमेरिकी सुरक्षा पर निर्भर हो सकते हैं ।
5. टैरिफ और प्रतिबंधों की राजनीति: ईरान और भारत पर लगे प्रतिबंधों का विश्लेषण
यह ताकत सैद्धांतिक नहीं, बल्कि इसका इस्तेमाल अक्सर विदेश नीति के एक कठोर औजार के रूप में किया जाता है। ईरान और भारत इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
ईरान पर लगे प्रतिबंधों का मकसद
1979 में अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों को बंधक बनाए जाने के बाद अमेरिका ने ईरान पर पहला प्रतिबंध लगाया था । बाद में, ये प्रतिबंध उसके परमाणु कार्यक्रम, मिसाइल विकास और आतंकवाद को समर्थन देने के जवाब में बढ़ाए गए । अमेरिका ने ईरान की तेल निर्यात और अन्य आर्थिक क्षेत्रों को लक्षित करके उसे वित्तीय संसाधनों से वंचित करने की कोशिश की, ताकि उसकी नीतियों को बदलने के लिए मजबूर किया जा सके । इन प्रतिबंधों ने ईरान की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया, लेकिन ईरान के व्यवहार में कोई खास बदलाव नहीं आया। बल्कि, ईरान ने एक 'प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था' (resistance economy) विकसित करने और चीन और रूस के साथ आर्थिक व सैन्य संबंध बढ़ाने की कोशिश की ।
1998 में भारत पर लगे प्रतिबंधों की कहानी
11 और 13 मई 1998 को भारत द्वारा किए गए पांच परमाणु परीक्षणों के बाद, राष्ट्रपति क्लिंटन ने 13 मई को भारत पर आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध लगाए। ये प्रतिबंध 'आर्म्स एक्सपोर्ट कंट्रोल एक्ट' (AECA) के तहत अनिवार्य थे । इन प्रतिबंधों का मकसद परमाणु परीक्षण करने वाले अन्य देशों को एक मजबूत संदेश देना और भारत के व्यवहार को प्रभावित करना था ।
प्रमुख प्रतिबंधों में शामिल थे:
विकास सहायता और विदेशी सैन्य बिक्री को समाप्त कर दिया गया। भारत के लिए $21 मिलियन की विकास सहायता और $6 मिलियन के ग्रीनहाउस गैस कार्यक्रम को रद्द किया गया ।
अमेरिकी सरकार की क्रेडिट और गारंटी (जैसे EXIM और OPIC) पर रोक लगाई गई। भारत के लिए सालाना $300 मिलियन के OPIC समर्थन को रोक दिया गया, और $500 मिलियन के EXIM फाइनेंसिंग को रोक दिया गया ।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (IFIs) जैसे विश्व बैंक से मिलने वाले $1.17 बिलियन के लोन को स्थगित किया गया ।
परमाणु या मिसाइल कार्यक्रमों से संबंधित संस्थाओं को 'दोहरे उपयोग' वाली वस्तुओं के निर्यात पर भी रोक लगाई गई ।
भारत-रूस तेल व्यापार पर हालिया दबाव
हाल के वर्षों में, राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत पर 25% का टैरिफ लगाने की धमकी दी और भारत के रूसी तेल आयात पर भी निशाना साधा । अमेरिकी अधिकारियों ने इन टैरिफों को रूस के लिए कमाई करना मुश्किल बनाने का एक प्रयास बताया । भारत ने इस दबाव के आगे झुकने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि वह अपने द्विपक्षीय संबंध स्वतंत्र रूप से तय करता है और किसी तीसरे देश के प्रभाव में नहीं आएगा । भारत ने इस दबाव को 'अन्यायपूर्ण' कहा, क्योंकि यूरोपीय संघ जैसे देश भी रूस से बड़ी मात्रा में व्यापार कर रहे थे, लेकिन उन्हें समान प्रतिबंधों का सामना नहीं करना पड़ा । अमेरिकी नीतियों के कारण भारत को चीन और रूस के साथ संबंध मजबूत करने के लिए प्रेरित किया गया, जिसे कई विश्लेषक एक 'रणनीतिक चूक' मानते हैं ।
6. भारत का उदय: अपनी ताकत बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
अमेरिका जैसे देश का सामना करने के लिए भारत को अपनी आंतरिक और रणनीतिक ताकत को बढ़ाना होगा। यह सिर्फ सैन्य या आर्थिक ताकत का मामला नहीं, बल्कि बहुआयामी विकास का है।
कृषि: सॉफ्ट पावर और खाद्य सुरक्षा का हथियार
भारत ने खाद्य सहायता पाने वाले देश से वैश्विक खाद्य सुरक्षा के 'वास्तुकार' के रूप में अपनी भूमिका को बदला है । 'गैस्ट्रोडिप्लोमेसी' (Gastrodiplomacy) के तहत, भारत भोजन को सॉफ्ट पावर के रूप में इस्तेमाल कर रहा है । 2007 में, अमेरिका ने 'न्यूक्लियर मैंगो डील' के तहत भारतीय आमों पर से प्रतिबंध हटा लिया था, जो परमाणु वार्ता के दौरान एक कूटनीतिक सफलता थी । बाद में, 2025 को अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित कर भारत ने इन अनाज को न केवल स्वास्थ्य खाद्य के रूप में, बल्कि भू-राजनीतिक हथियार के रूप में भी पेश किया । G20 शिखर सम्मेलन में बाजरे से बने व्यंजन परोसकर, भारत ने खुद को वैश्विक खाद्य सुरक्षा और जलवायु समाधान के प्रदाता के रूप में स्थापित किया ।
भारतीय कृषि मंत्रालय ISRO के साथ मिलकर अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहा है। 'फसल' (FASAL) परियोजना के तहत, सैटेलाइट इमेजरी का उपयोग कर प्रमुख फसलों के उत्पादन का सटीक अनुमान लगाया जाता है । 'कृषि-डीएसएस' (Krishi-DSS) जैसे प्लेटफॉर्म और 'वाईईएसटीईसीएच' (YESTECH) जैसी प्रणालियां किसानों के लिए बीमा और निर्णय लेने में पारदर्शिता और दक्षता ला रही हैं ।
मानव संसाधन: डॉक्टर, इंजीनियर और ज्ञान-आधारित समाज
भारतीय प्रवासी (diaspora) भारत की 'सॉफ्ट पावर' का सबसे बड़ा साधन है । यह प्रवासियों का समुदाय, जिसमें डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक शामिल हैं, भारत के लिए एक 'ज्ञान-उत्पादक मशीन' की तरह काम करता है । ये प्रवासी भारत और खाड़ी देशों जैसे मेजबान देशों के बीच विश्वास और संबंध स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिससे भारत के लिए कूटनीतिक लाभ मिलते हैं । विदेशों में भारतीय मूल के पेशेवरों की सफलता भारत की वैश्विक छवि को मजबूत करती है और उसकी सॉफ्ट पावर को बढ़ाती है।
सक्षम ISRO और मजबूत ख़ुफ़िया तंत्र
ISRO की ताकत भारत के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संपत्ति है। यह दुनिया की केवल छह सरकारी अंतरिक्ष एजेंसियों में से एक है जिसके पास स्वदेशी लॉन्च क्षमताएं और क्रायोजेनिक इंजन हैं । इसकी लागत-प्रभावीता (cost-effectiveness) इसे अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए एक आकर्षक भागीदार बनाती है । ISRO की प्रौद्योगिकियां नागरिक और सैन्य दोनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण हैं, जैसे आपदा प्रबंधन, टेलीमेडिसिन, नेविगेशन और जासूसी ।
इसी तरह, एक मजबूत खुफिया तंत्र भारत की विदेश नीति को अधिक सूचित और सुरक्षित बनाता है। रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) भारत की प्राथमिक विदेशी खुफिया एजेंसी है। यह प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन काम करती है और विदेशी खतरों से संबंधित जानकारी एकत्र करती है । यह एजेंसी आतंकवाद-रोधी अभियानों और राष्ट्र के हितों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।
निष्कर्ष: नई विश्व व्यवस्था में भारत की भूमिका
अमेरिका की दादागीरी का जवाब सीधे टकराव से नहीं, बल्कि अपनी ताकत के बहुआयामी स्तंभों को मजबूत करके दिया जा सकता है। अपनी सैन्य और आर्थिक शक्ति के साथ-साथ, अमेरिका ने अपनी भू-राजनीतिक स्थिति और डॉलर के वर्चस्व का लाभ उठाया है। भारत के लिए, अपनी कृषि को कूटनीतिक औजार में बदलना, ISRO को केवल अंतरिक्ष अन्वेषण के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास का साधन बनाना, और अपने प्रवासियों को एक अमूल्य रणनीतिक संपत्ति के रूप में देखना ही सही रास्ता है। इन क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता और श्रेष्ठता हासिल करके, भारत न केवल बाहरी दबाव का सफलतापूर्वक सामना कर पाएगा, बल्कि एक अधिक न्यायपूर्ण और बहु-ध्रुवीय (multi-polar) विश्व व्यवस्था को आकार देने में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
True
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