DBUP Women's: महिलाओं की सुरक्षा: एक अनसुनी पुकार - By, Priyanshi Tripathi #17 *wdc2025pt* (1)
आज जब हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो क्या वास्तव में महिलाएँ सुरक्षित महसूस कर रही हैं? सड़कों पर, कॉलेज में, कार्यस्थल पर या फिर अपने ही घर में—महिलाएँ कहीं भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं।
महिलाओं की सुरक्षा: सिर्फ एक मुद्दा नहीं, एक ज़रूरत
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर दिन सैकड़ों महिलाएँ यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, छेड़छाड़ और दहेज प्रताड़ना का शिकार होती हैं। कुछ मामले रिपोर्ट होते हैं, लेकिन ज्यादातर घटनाएँ समाज के डर और लोकलाज के कारण दबा दी जाती हैं।
क्या लड़कियाँ रात में अकेले बाहर जा सकती हैं?
क्या कोई लड़की बिना डर के पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर कर सकती है?
क्या हर लड़की के पास घर से बाहर निकलते ही "कॉल कर लेना" जैसी हिदायत नहीं दी जाती?
अगर इन सवालों का जवाब "नहीं" है, तो हमें समझ जाना चाहिए कि महिला सुरक्षा सिर्फ एक सामाजिक बहस नहीं, बल्कि एक गंभीर वास्तविकता है।
महिला सुरक्षा के लिए क्या जरूरी है?
- शिक्षा और मानसिकता में बदलाव: लड़कियों को आत्मरक्षा सिखाने के साथ-साथ लड़कों को भी सम्मान और समानता का पाठ पढ़ाना होगा।
- सख्त कानून और त्वरित न्याय: कई बार अपराधी कानूनी प्रक्रिया की ढिलाई का फायदा उठाते हैं, इसलिए तेज और सख्त सजा जरूरी है।
- सेफ्टी ऐप्स और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल: 112 हेल्पलाइन, वुमन सेफ्टी ऐप्स, जीपीएस ट्रैकिंग जैसी सुविधाओं का प्रचार-प्रसार जरूरी है।
- कार्यस्थल और कॉलेज में सुरक्षा उपाय: हर संस्थान में विशेष महिला सुरक्षा समिति होनी चाहिए, जहाँ महिलाएँ अपनी शिकायतें बेहिचक दर्ज करा सकें।
समाज को जिम्मेदारी लेनी होगी
महिला सुरक्षा सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि समाज, परिवार और हर नागरिक की भी जिम्मेदारी है। जब तक हम महिलाओं को बराबरी और सम्मान से नहीं देखेंगे, तब तक असली बदलाव नहीं आएगा।
धन्यवाद और आभार
DBUP India को इस अनमोल अवसर के लिए धन्यवाद, जिससे मुझे अपनी बात रखने का मंच मिला।
साथ ही, RMLAU विश्वविद्यालय का भी आभार, जिसने हमेशा हमें सही सोच और साहस से आगे बढ़ने की प्रेरणा दी।
अब समय आ गया है कि महिला सुरक्षा सिर्फ कागजों पर नहीं, बल्कि असल जिंदगी में भी महसूस हो। जब एक लड़की रात में भी बिना डर के घर लौटे, तब समझिए कि हम सही मायनों में आगे बढ़ चुके हैं।
- प्रियांशी त्रिपाठी, स्नातक छात्रा, RMLAU विश्वविद्यालय, अयोध्या
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आपका कथन सटीक है। हमे एक बात पर और बल देना है कि घर पर भी अपने बच्चों को अपने संस्कार को जीवित रखने की कला सिखानी होगी। कानून होने के बाद और लगातार सजा सुनाई जाने के बाद भी अपराध का काम न होना ये साबित करता है कि कहीं न कहीं हमारे संस्कारों में कुछ कमी रह जा रही है।
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